नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्यों के लिए संसदीय कार्यप्रणाली की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए ओरिएंटेशन कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति के संबोधन का मूलपाठ (अंश)
सभी को नमस्कार, आप सबका परम सौभाग्य है कि आप दुनिया की सबसे पुरानी, सबसे बड़ी और सबसे जीवन्त लोकतंत्र के सर्वश्रेष्ठ मंदिर का हिस्सा हैं। आप इतिहास रचित करने की स्थिति में हैं और आपका नाम इतिहास में दर्ज है।
आप वास्तव में भाग्यशाली हैं कि आपको सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्र, में सर्वोच्च निकाय का सदस्य होने का यह महान विशेषाधिकार मिला है। जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक कार्यरूप में है। इस अवसर पर मैं आप सभी को बधाई देता हूं।
सबसे महत्वपूर्ण काम संसद का है। मैं आपसे ये उम्मीद करता हूँ कि ऐसी परिस्थिति में मेरे द्वारा कही गई बातों को आप सदाचार और सद्भाव से लेंगे।
मैंने एक प्रतिवाद के साथ शुरुआत की है। मैं आपको सलाह या सुझाव या मार्गदर्शन देने की स्थिति में नहीं हूं।
आखिर भारतीय संसद की आवश्यकता क्या है? आप और हम इससे जुड़े हुए हैं। संसद कि मूल मुख्य और निर्णायक भूमिका दो हैं – संविधान का सृजन करना, संरक्षण करना और सामयिक दृष्टि से इसको देखना और दूसरा प्रजातन्त्र की रक्षा करना।
आपसे ज़्यादा गंभीर प्रजातन्त्र का प्रहरी कोई नहीं है। प्रजातन्त्र पर कोई संकट आएगा, प्रजातान्त्रिक मूल्यों पर कुठाराघात होगा तो आपकी भूमिका निर्णायक है।
आपातकाल के काले अध्याय, भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय काल जहां तानाशाही के तरीके से, बेतहाशा रूप के अंदर मौलिक अधिकारों को कुचला गया, लोगों को जेल मे डाला गया उसको यदि अगर छोड़ दें तो हमारा कार्यकाल कमोबेश उत्तम रहा है।
हम इस बात पर पूर्ण रूप से गर्व कर सकते हैं कि हमारी संसद के सदस्यों ने शुरू से ही जनता के समर्थन में अपना आचरण और कार्य किया है। हर समय, हर काल में उन्होंने इस राष्ट्र के विकास में योगदान दिया है। केवल एक ही दर्दनाक, दिल दहला देने वाला काला दौर रहा है और वह था जब आपातकाल की घोषणा की गई थी।
उस समय हमारा संविधान केवल एक कागज तक सीमित रह गया था। इसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया और देश के नेताओं को जेल में डाल दिया गया। आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (एमआईएसए) एक निष्ठुर शब्द बन गया। देश के वरिष्ठ राजनेताओं में से एक श्री लालू प्रसाद यादव आपातकाल के अत्याचारों से इतने प्रभावित और द्रवित हुए कि उन्होंने अपनी नवजात बालिका शिशु का नाम मीसा रखा। इस बच्ची को सदन का सदस्य बनने का अवसर मिला। अब यह दूसरे सदन में है। यदि हम उस आपातकाल के दौर को नज़रअंदाज़ कर दें तो हमारी संसद ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। इसने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है।
आज के दिन हमारा मुख्य कार्य क्या है? हम इसको और प्रभावी बनाएँ, और सार्थक बनाएँ। दुनिया के बदलते हुए रूप को देखकर, भारत की बढ़ती ताकत को देखकर हमारी भूमिका हो।
देश का हर नागरिक आपसे अपेक्षा रखता है, आपसे उम्मीद रखता है और ये मान कर चलता है कि आपका आचरण इतना उत्तम होगा, इतना सर्वश्रेष्ठ होगा, जनता को इतना समर्पित रहेगा कि वो आपका अनुकरण करेंगे।
हम संसदीय प्रणाली को राजनीतिक दल की भूमिका से आकलन कर के नहीं देख सकते। राजनीति का स्थान है, राजनीति करनी होती है। राजनीति करना स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए आवश्यक है। लेकिन राष्ट्र से जुड़े हुए मुद्दों को देखकर, राष्ट्रहित को देखकर, राष्ट्रवाद को समर्पित करते हुए।
ऐसे मौके आते हैं जब हमें राजनीतिक चश्मे से देखना नज़रअंदाज करना होता है।
जब मैं इस कसौटी पर आज के हालात को देखता हूँ, तो मुझे चिंता होती है। पीड़ा होती है, परेशानी होती है। और मैं ये मान कर चलता हूँ, आप इससे भली-भांति वाकिफ हैं। लंबे समय से हमारी संसद विचार-विमर्श और सार्वजनिक विचार-विमर्श का एक दुर्ग माना जाता रहा है।
यह संवैधानिक मूल्यों और स्वतंत्रता का गढ़ रहा है। समय-समय पर थोड़ी बहुत गड़बड़ होती रही है पर समझदारी से सदन के नेताओं ने एक मार्गदर्शन किया है।
आज के हालात चिंताजनक हैं। अमर्यादित आचरण राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग किया जा रहा है। यह प्रजातंत्र की मूल भावना पर कुठाराघात है। मर्यादा को नुकसान पहुंचाना लोकतंत्र की जड़ों को हिलाना है।
लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता कि यह धारणा बनाई जाए कि अशांति और व्यवधान संसद और राष्ट्र की प्रतिष्ठा की कीमत पर राजनीतिक लाभ उठाने के राजनीतिक हथियार हैं।
मेरा आपसे गुजारिश रहेगी, आपका आचरण मर्यादित हो, शिष्टाचार पूर्ण हो। विचार प्रक्रिया का अभिसरण होना चाहिए। आये दिन मै ये सामना करता हूँ, किसी भी सदस्य ने कोई विचार व्यक्त किया, उस विचार को सुनना नहीं चाहते, उस विचार की ओर ध्यान नहीं देना चाहते, उस पर अविलम्ब तुरंत प्रतिघात करना चाहते हैं, ये ठीक नहीं है। आप विचार को सुनिए, सुनने में ये नहीं है कि आप उसको स्वीकार करने के लिए विवश हैं, आपका अधिकार है कि आप सुनने के पश्चात, उसका अध्ययन करने के पश्चात, आप अपनी असहमति व्यक्त करें|
मित्रों!
दूसरों के विचारों को नजरअंदाज करना संसदीय परंपरा का हिस्सा नहीं है। दूसरे दृष्टिकोण पर कम से कम विचार करने की आवश्यकता है। यदि आप दूसरे दृष्टिकोण को सुनते हैं तो ऐसा नहीं है कि आप उस दृष्टिकोण से सहमत हैं।
आप सबने देखा होगा ऐसा आचरण हो रहा है कि मेरे पास हर सप्ताह ऐसी डाक आती है कि पढ़ते हुए दिल कांप जाता है। नौकरी-पेशा लोगों से, विद्यार्थियों से कि आप बैठकर वहाँ कर क्या रहे हो? कैसा अखाड़ा बन गया है? ऐसी नारेबाजी तो कहीं नहीं होती है, ऐसा उत्पात तो कहीं देखा नहीं जाता है। क्या आपने जिम्मा ले रखा है कि यह सबसे अधिक कुप्रबंधित संगठन होगा?